जमीन के बिना खेती नहीं हो सकती, लेकिन मशरूम की खेती के जरिए इसे संभव बनाया है छत्तीसगढ़ के दक्षिण बस्तर (दंतेवाड़ा) जिले के कासौली राहत शिविर में निवासरत मॉ शारदा स्व-सहायता समूह की महिलाओं ने। नक्सल हिंसा और आतंक के चलते घर छोड़ने को मजबूर ग्रामीण परिवारों की ये गरीब महिलाएं अपने बुलंद हौसलों और कड़ी मेहनत से न केवल बंद कमरे में मशरूम की खेती कर अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण अच्छी तरह कर रही है बल्कि भूमिहीन लोगों के सामने उन्होंने आत्मनिर्भरता का एक उदाहरण भी पेश किया है।
ज्ञातव्य है कि नक्सल पीड़ित दक्षिण बस्तर जिले के अनेक गांवों के लोग नक्सल हिंसा और आतंक से त्रस्त होकर अपना घर-बार, खेत-बाड़ी को छोड़ कर राज्य शासन की मदद से विभिन्न शिविरों में अपना गुजर बसर कर रहे हैं। शिविर में रह रहे लोगों को राज्य सरकार जहॉ मूलभूत सुविधाएं मुहैया करा रही है वहीं इन ग्रामीणों को अपने पैरों में खड़े होने तथा उन्हें आत्मनिर्भर बनाने विभिन्न व्यवसाय मूलक प्रशिक्षण एवं सहायता भी शासन की ओर से दी जा रही है। इसी कड़ी में जिले के गीदम विकासखण्ड स्थित कासौली राहत शिविर में रहने वाली महिलाएं मलको, सिमरी, राधा, कुमली, लाखे, नहिनों, पाइके, चिमरी, पाकली, चमली तथा सीते ने मॉ शारदा स्व सहायता समूह का गठन किया और बिना भूमि की खेती मशरूम उत्पादन का निर्णय लिया। इस समूह को विशेष राहत योजना के तहत शासन द्वारा आवश्यक प्रशिक्षण एवं सुविधाएं मुहैया करायी गयी और आज इस समूह की महिलाएं बिना भूमि के केवल एक बंद कमरे में मशरूम का विपुल उत्पादन कर न केवल आत्मनिर्भर हुयी है बल्कि सभी को दातों तले उंगली दबाने को मजबूर कर दिया है।
उल्लेखनीय है कि शाकाहारी एवं मांसाहारी सभी लोगों की विशेष पंसद मशरूम आज व्यजंनो में अपना विशेष महत्व रखता है। कम लागत, हर मौसम में बिना भूमि के मात्र एक बंद कमरे में कम मेहनत एवं आसानी से उत्पादन होने के कारण मशरूम की दिनोदिन मांग एवं महत्व बढ़ता जा रहा है। समूह की अध्यक्ष श्रीमती मलकों कहती है कि वे लोग नक्सल हिंसा के चलते अपना घर, खेत-बाड़ी को छोड़कर सुरक्षा हेतु शिविरों में आना पड़ा यहॉ वे लोग दैनिक मजदूरी कर अपना जीवन निर्वहन कर रहे थे परंतु अब मशरूम उत्पादन से उन्हें अच्छी आमदनी होने लगी है। वो बताती है कि कम पूंजी और मात्र 20 से 25 दिनों में मशरूम का उत्पादन होने लगता है। मशरूम उत्पादन हेतु स्पॉन (बीज) 40 से 50 रूपये प्रति किलो की दर से बाजार में आसानी से मिल जाता है और एक किलो बीज से 10 से 15 किलों मशरूम का उत्पादन होता है। समूह की सदस्य श्रीमती पाइके बताती है कि जब हमें कृषि विभाग के अधिकारियों द्वारा मशरूम उत्पादन का प्रशिक्षण दिया जा रहा था तब हमें यह बहुत ही कठिन लग रहा था परंतु यह तो बहुत ही आसानी से होता है। समूह की अन्य सदस्य श्रीमती चिमरी बताती है कि मशरूम तैयार करने के लिए धान अथवा गेहूं की भूसी के गोले बनाकर उसमें स्पॉन मिलाकर पालीथीन में डालकर नमीयुक्त छप्पर के नीचे रखते है । नमी बनाये रखने के लिए समूह के सदस्य बारी-बारी से इसमें पानी का छिड़काव करते है और खाली समय में महिलाएं अपने घर एवं मजदूरी का कार्य करती है। सदस्य श्री नहिनों कहती है कि प्रतिदिन 3 से 4 किलों मशरूम का उत्पादन हो जाता है तथा बारिश के दिनों में 100 से 150 रूपये तथा गर्मियों में 200 से 250 रूपये प्रति किलो की दर से मशरूम बिक जाता है। मशरूम खरीदने गीदम एवं दंतेवाड़ा से लोग कासौली आते है वहीं गीदम बाजार में हाथो-हाथ मशरूम अच्छी कीमत में बिक जाता है। आज मशरूम की बिक्री से समूह के खाते में 15 हजार रूपये भी जमा हो गये है। वहीं समूह की महिलाओं ने बिक्री में से एक-एक हजार रूपयों से अपने-अपने घर की जरूरतों का समान भी खरीद लिया है। मशरूम की बढती मांग को देखते हुए समूह की महिलाएं काफी उत्साहित है और इसे बड़े पैमाने पर इसकी खेती करने की ठान ली है।
कृषि विभाग के अधिकारियों का कहना है कि मशरूम पौष्टिकता की दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण है। इसमें प्रोटीन, फाइबर्स एवं फोलिक एसिड के तत्व समाहित होते हैं जो स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी लाभदायक होते हैं। आज मशरूम के इन्ही गुणों के कारण इसकी मांग बढ़ती जा रही है। शहरों में मशरूम के आचार, मुरब्बा एवं सूप पाउडर के साथ ही दवाईयों में भी इसकी खासी मांग है। मॉ शारदा स्व सहायता समूह की सफलता को देखकर अन्य महिलांए एवं समूह भी इस और आकृष्ट हो रहे है।
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